Friday 13 September 2019




आदिवासी सीता का बयान


धर्ती की बेटी मैं। चुपचाप निकली थी धर्ती से।
आखिर तुम्हें जनम देने के लिए मेरा जनम होना जरूरी था।
मैं धर्ती का पहला संतान।
निःशब्द! निर्वाक हुँ!
निस्तेज हैं मेरी आंखे। विस्मय में हुँ।
निर्दोष मस्तक पर कलङ्क का तिलक ले कर
लज्जित हुँ शहर के भीड़ में।

धोबी तो केवल निमित्त था।
क्या दो शरीर - एक आत्मा नहीं हैं हम?
प्रिय, मुझे मत पुछो तो अच्छा है
कि यह परित्यक्त जीवन किस तरह धान रही हुँ।
एक पल की अग्निपरीक्षा में
मेरे अंदर का ‘मैं’ किस तरह धधक धधक कर दहक रहा है अब तक
कभी न बुझने वाला तिरस्कृत ज्वाला बन कर!
यह भी पता है मुझे
कि तुम्हारा मन का आंगन
झुलस रहा होगा आर्यधर्म की लौ की गर्मी से।
क्या काफी नहीं था तुम्हारे शंका के रोग के लिए
मेरे विश्वास का मल्हम?
प्रिय, आज मैं घिरी हुँ सवालों के भीड़ से।
दरकिनार आत्मसम्मान से भी
फेंका गया सत्य से भी
बचाया गया पवित्रता से भी
महान् हो सकता है
उंचा हो सकता है
इतिहास के किसी हुकुमती मोड़ में तुम्हारे पुर्खों का खड़ा किया हुआ आर्यधर्म?
मेरी आंखे भरी हुई है भयंकर दृश्य व गहरे पीड़ा से।
पिता के आज्ञा और पुत्र के खुनी अस्त्र
और जननी का आधा काटा गया कण्ठ ...
हे मेरे प्रिय
धर्मबद्ध क्रूरता के शैया में चेतनाहीन रेणुका देवी की
अंतर मन में, गहनता में, चेतना में
जिंदा हुँ इस घड़ी।
यह गहनता/ यह चुनौती/ यह गर्व
मेरी आत्मसम्मान से कम है क्या?

मेरे आराध्य!
संदेह की शूल अहिल्या को भी कहां नहीं चुभी थी?
अपमान के पीड़ा से शुपर्ण खाँ भी कब विचलित नहीं था?
उर्मिला की पीड़ा/ अहिल्या की पीड़ा/ शुपर्ण खाँ का पीड़ा/ रेणुका देवी की पीड़ा
और मेरी पीड़ा कहां अलग है?
फर्क इतना ही है बस -
हमारे रास्ते अलग अलग हैं।
प्रिय, पानी के फव्वारे की तरह सतह की सुन्दरता में मैं खोई रही
कलंकित जीवन जी कर निष्कलंक पुत्रद्वय देने के बाद
रमी रही प्रकृति के गोद में।

हो गया अब बस, और कितना बार दुं मैं अग्निपरीक्षा?
और कितने घाव दुं मेरे आत्मा को?
हे मेरे आराध्य, मुझे माफ करे।
अब मुझे क्या मतलब ‘पटरानी’ और ‘राजमाता’-के उपाधियों से।
जो मुझे स्वीकार्य नहीं मेरे आत्मसम्मान के एवज में।
अगर सुन सकोगे तो सुनो मेरे अंतर मन को।
प्रिय, मैं जानती हुं, लव-कुश भी आर्यपुत्र ही हैं।
आखिर कितना फर्क पड़ेगा और अब मेरे अंदर की ‘मैं’ को?

अब शान्त हुं/ निश्चिंत हुं/ स्थिर हुं।
प्रिय, चुपचाप धर्ती से निकली थी एक दिन।
धर्ती की बेटी मैं। लौट रही हुं मेरी मां धर्ती के ही गर्भ में।
म आदिवासी सीता।

दीपा राई - सिक्किम